किसान ही घाटा क्यों उठाता है? पर वो मेहनत तो पूरी करता है।

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किसान ही घाटा क्यों उठाता है? पर वो मेहनत तो अपनी पूरी करता है।

किसान का नाम हमारे मन में आते ही जेहन में एक गरीब,लाचार, बेचारा और बेबस इंसान का चेहरा सामने आता हैं। एक ऐसा इंसान जिसके जैसी नेक नियत का इंसान और काम दुनियाँ में दूसरा कोई है ही नहीं। एक ऐसा इंसान जिसकी नेक कमाई में सबका सांझा हैं। वो सबका अन्नदाता हैं पर दुनियाँ मे सबसे दुःखी वही इंसान हैं, जिसका सरकार से लेकर कुदरत तक सब उसके दुश्मन हैं। कभी सरकार की गलत योजनाओं का शिकार होता हैं वो इंसान, तो कभी कुदरत की मार सहता रहता हैं, परंतु हिम्मत फिर भी नहीं हारता, अपने कर्म में लगा रहता हैं और दुनियाँ का पेट भरता रहता हैं।
पर क्यों आता है जेहन में ऐसा चेहरा सामने? हम बताते है, एक तो किसानी का पूरा काम इतना श्रम आधारित है कि इसमें शरीर तोड़ने वाले श्रम की जरूरत पड़ती है। वो प्रकृति से भी लड़ता है क्योंकि प्रकृति कभी भी उसके नियम से चलती नहीं है और सरकार के द्वारा बनाई गई तमाम व्यवस्थाएं जो उसके प्रतिकूल जा रही हैं, किसान को उससे भी लड़ना होता है। उस इंसान के पास दीन हीन होने, कमजोर होने, लाचार होने, बेचारा होने के अलावा उसके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता है।

” साहिल के तमनाई हर डूबने वाले पर ,
अफसोस तो करते हैं, इमदाद नहीं करते ”

किसान ही घाटा क्यों उठाता है? पर वो मेहनत तो पूरी करता है।

किसानों के लिए सरकार के कुछ करने का मतलब उन्हें कर्ज देना या फिर उनका कर्ज माफ़ करना ही है। आखिर भारत के किसान को इन कर्जों से मुक्ति कब और कैसे मिल सकती है? हमारे नेता किसानों की बात तो करते हैं दरअसल वे किसानों की नहीं, अपनी बात करते हैं। किसान तो कहीं उस विषय का पात्र ही नहीं है। किसान का मुद्दा तो धर्म से भी बड़ा मुद्दा हैं
फसल की कीमत तय करने का अधिकार किसान क्यों नहीं है? एक अखबार छापने वाला, साबुन बनाने वाला और एक नूडल्स बनाने वाला सब अपनी-अपनी फसल की कीमत तय करते है। फिर किसान को क्यों नहीं उसकी फसल की कीमत तय करने का? सवाल उठता है कि इस वक्त क्या सबसे जरूरी है जिसकी तरफ सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है या जान के भी अनजान बन रही है।
एक तो यह है कि जो समर्थन मूल्य अनाजों का आप तय करते हैं, वो आप न तय करें और जगह-जगह किसानों की को-ऑपरेटिव को तय करने दें। दूसरा ये कि जो भी बाजार भाव तय होता है, उस भाव पर फसल बाजार में बिके। इसकी देखरेख की व्यवस्था सरकार करे। सरकार दूसरा कोई रोल न प्ले करे। उनको पेमेंट के नाम पे गुमराह ना किया जाये। जो भी समर्थन मूल्य तय हो, उसको बाजार का व्यापारी किसान की लाचारी का फायदा उठाकर उसको कम दाम पर बेचने के लिए बेबस न करे। ये देखने के लिए सरकार बाजार में कोई व्यवस्था करे। कृषि उत्पादों के मांग और पूर्ति के बीच का असन्तुलन है उसको सन्तुलन किया जाये। आज भी मुनाफा बिचौलियों के बीच बंट जाता है और नुकसान उस लाचार और बेबस इंसान किसान के मत्थे चढ़ा दिया जाता है।